अनिर्णय की विशाल पर्वतमाला के
किनारे-किनारे
थके-थके कदमों से
चलता है
एक तुतलाता बच्चा,
टटोलता जाता है
दुनियावी रीति से
परे की एक दुनिया को
पर्वत की चोटियों में,
झरनों की ध्वनियों में,
लुढ़क रहे शैलों में,
उतर रही नदियों में,
चोटियों के निकट जाकर
बार-बार लौट रहे
घने-घने मेघों में,
व्योम की चादर की
घिर आई कालिमा में...
ताकता है
उगे हुए सूरज के भोले-से बचपन को
आँखें सिकोड़कर
गड्ढे पड़ जाते हैं गालों में उसके
कह जाते जो
उपेक्षा औ’ अलगाव की वंचित कहानी
जो मिली उसे
इसी दुनिया से, दुनियावी रीति से...
माँ किसी और जाति की,
किसी और धर्म का था बाप,
टटोलता जाता है बच्चा
एक नई दुनिया को
और सहता जाता
इसी दुनिया का ताप।